Tuesday, December 15, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ३ ,दिसम्बर २०१५ में


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ३  ,दिसम्बर   २०१५ में
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ग़ज़ल (माँ का एक सा चेहरा)

बदलते बक्त में मुझको दिखे बदले हुए चेहरे
माँ का एक सा चेहरा , मेरे मन में पसर जाता

नहीं देखा खुदा को है ना ईश्वर से मिला मैं हुँ
मुझे माँ के ही चेहरे मेँ खुदा यारों नजर आता

मुश्किल से निकल आता, करता याद जब माँ को
माँ कितनी दूर हो फ़िर भी दुआओं में असर आता

उम्र गुजरी ,जहाँ देखा, लिया है स्वाद बहुतेरा
माँ के हाथ का खाना ही मेरे मन में उतर पाता

खुदा तो आ नहीं सकता ,हर एक के तो बचपन में
माँ की पूज ममता से अपना जीबन , ये संभर जाता

जो माँ की कद्र ना करते ,नहीं अहसास उनको है
क्या खोया है जीबन में, समय उनका ठहर जाता


मदन मोहन सक्सेना

Monday, November 9, 2015

मेरी पोस्ट धनतेरस का पर्ब (परम्पराओं का पालन या रहीसी का दिखाबा ) जागरण जंक्शन में प्रकाशित


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट धनतेरस का पर्ब (परम्पराओं का पालन या रहीसी का दिखाबा ) जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .


 
 
Dear User, 
 
 
 
 
धनतेरस का पर्ब (परम्पराओं का पालन या रहीसी का दिखाबा )
 आज यानि शुक्रबार दिनांक नवम्बर छह दो हज़ार पंद्रह ,आज के तीन दिन बाद को पुरे भारत बर्ष में धनतेरस मनाई जाएगी। धनतेरस के दिन सोना, चांदी के अलावा बर्तन खरीदने की परम्परा है। इस पर्व पर बर्तन खरीदने की शुरुआत कब और कैसे हुई, इसका कोई निश्चित प्रमाण तो नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता है कि जन्म के समय धन्वन्तरि के हाथों में अमृत कलश था। इस अमृत कलश को मंगल कलश भी कहते हैं और ऐसी मान्यता है कि देव शिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने इसका निर्माण किया था। यही कारण है आम जन इस दिन बर्तन खरीदना शुभ मानते हैं। आधुनिक युग की तेजी से बदलती जीवन शैली में भी धनतेरस की परम्परा आज भी कायम है और समाज के सभी वर्गों के लोग कई महत्वपूर्ण चीजों की खरीदारी के लिए पूरे साल इस पर्व का बेसब्री से इंतजार करते हैं। हर साल कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी केदिन धन्वतरि त्रयोदशी मनायी जाती है। जिसे आम बोलचाल में ‘धनतेरस’ कहा जाता है। यह मूलत: धन्वन्तरि जयंती का पर्व है और आयुर्वेद के जनक धन्वन्तरि के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। आने वाली पीढियां अपनी परम्परा को अच्छी तरह समझ सकें। इसके लिए भारतीय संस्कृति के हर पर्व से जुडी कोई न कोई लोक कथा अवश्य है। दीपावली से पहले मनाए जाने वाले धनतेरस पर्व से भी जुडी एक लोककथा है, जो कई युगों से कही, सुनी जा रही है। पौराणिक कथाओं में धन्वन्तरि के जन्म का वर्णन करते हुए बताया गया है कि देवता और असुरों के समुद्र मंथन से धन्वन्तरि का जन्म हुआ था। वह अपने हाथों में अमृत कलश लिए प्रकट हुए थे। इस कारण उनका नाम पीयूषपाणि धन्वन्तरि विख्यात हुआ। उन्हें विष्णु का अवतार भी माना जाता है। परम्परा के अनुसार धनतेरस की संध्या को मृत्यु के देवता कहे जाने वाले यमराज के नाम का दीया घर की देहरी पर रखा जाता है और उनकी पूजा करके प्रार्थना की जाती है कि वह घर में प्रवेश नहीं करें और किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं। देखा जाए तो यह धार्मिक मान्यता मनुष्य के स्वास्थ्य और दीर्घायु जीवन से प्रेरित है।
यम के नाम से दीया निकालने के बारे में भी एक पौराणिक कथा है, एक बार राजा हिम ने अपने पुत्र की कुंडली बनवायी। इसमें यह बात सामने आयी कि शादी के ठीक चौथे दिन सांप के काटने से उसकी मौत हो जाएगी। हिम की पुत्रवधू को जब इस बात का पता चला तो उसने निश्चय किया कि वह हर हाल में अपने पति को यम के कोप से बचाएगी। शादी के चौथे दिन उसने पति के कमरे के बाहर घर के सभी जेवर और सोने-चांदी के सिक्कों का ढेर बनाकर उसे पहाड़ का रूप दे दिया और खुद रात भर बैठकर उसे गाना और कहानी सुनाने लगी ताकि उसे नींद नहीं आए। रात के समय जब यम सांप के रूप में उसके पति को डंसने आए तो वह सांप आभूषणों के पहाड़ को पार नहीं कर सका और उसी ढ़ेर पर बैठकर गाना सुनने लगा। इस तरह पूरी रात बीत गई और अगली सुबह सांप को लौटना पड़ा। इस तरह उसने अपने पति की जान बचा ली। माना जाता है कि तभी से लोग घर की सुख, समृद्धि के लिए धनतेरस के दिन अपने घर के बाहर यम के नाम का दीया निकालते हैं ताकि यम उनके परिवार को कोई नुकसान नहीं पहुंचाए।भारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य का स्थान धन से ऊपर माना जाता रहा है। यह कहावत आज भी प्रचलित है ‘पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में माया’ इसलिए दीपावली में सबसे पहले धनतेरस को महत्व दिया जाता है, जो भारतीय संस्कृति के सर्वथा अनुकूल है। धनतेरस के दिन सोने और चांदी के बर्तन, सिक्के तथा आभूषण खरीदने की परम्परा रही है। सोना सौंदर्य में वृद्धि तो करता ही है। मुश्किल घड़ी में संचित धन के रूप में भी काम आता है। कुछ लोग शगुन के रूप में सोने या चांदी के सिक्के भी खरीदते हैं। दौर के साथ लोगों की पसंद और जरूरत भी बदली है इसलिए इस दिन अब बर्तनों और आभूषणों के अलावा वाहन मोबाइल आदि भी खरीदे जाने लगे हैं। वर्तमान समय में देखा जाए तो मध्यम वर्गीय परिवारों में धनतेरस के दिन वाहन खरीदने का फैशन सा बन गया है। इस दिन ये लोग गाड़ी खरीदना शुभ मानते हैं। कई लोग तो इस दिन कम्प्यूटर और बिजली के उपकरण भी खरीदते हैं। रीति रिवाजों से जुडा धनतेरस आज व्यक्ति की आर्थिक क्षमता का सूचक बन गया है। एक तरफ उच्च और मध्यम वर्ग के लोग धनतेरस के दिन विलासिता से भरपूर वस्तुएं खरीदते हैं तो दूसरी ओर निम्न वर्ग के लोग जरूरत की वस्तुएं खरीद कर धनतेरस का पर्व मनाते हैं। इसके बावजूद वैश्वीकरण के इस दौर में भी लोग अपनी परम्परा को नहीं भूले हैं और अपने सामर्थ्य के अनुसार यह पर्व मनाते हैं।

धनतेरस का पर्ब (परम्पराओं का पालन या रहीसी का दिखाबा )


मदन मोहन सक्सेना

Tuesday, November 3, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक २ ,नवम्बर २०१५ में



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक २  ,नवम्बर  २०१५ में
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ग़ज़ल (दुआ)

हुआ इलाज भी मुश्किल ,नहीं मिलती दबा असली
दुआओं का असर होता दुआ से काम लेता हूँ

मुझे फुर्सत नहीं यारों कि माथा टेकुं दर दर पे
अगर कोई डगमगाता है उसे मैं थाम लेता हूँ

खुदा का नाम लेने में क्यों मुझसे देर हो जाती
खुदा का नाम से पहले ,मैं उनका नाम लेता हूँ

मुझे इच्छा नहीं यारों कि  मेरे पास दौलत हो
सुकून हो चैन हो दिल को इसी से काम लेता हूँ

सब कुछ तो बिका करता मजबूरी के आलम में
मैं सांसों के जनाज़े को सुबह से शाम लेता हूँ

सांसे है तो जीवन है तभी है मूल्य मेहनत का
जितना हो  जरुरी बस उसी का दाम लेता हूँ

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना




Monday, October 5, 2015

मेरी रचना मदुराक्षर पत्रिका में



प्रिय मित्रो मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी रचना मदुराक्षर पत्रिका मेंशामिल की गयी है।  आप की प्रतिक्रिया का स्वागत है. 

हमको कुछ नहीं मालूम

देखा जब नहीं उनको और हमने गीत नहीं गाया
जमाना हमसे ये बोला की बसंत माह क्यों नहीं आया

बसंत माह गुम हुआ कैसे ,क्या तुमको कुछ चला मालूम
कहा हमने ज़माने से की हमको कुछ नहीं मालूम

पाकर के जिसे दिल में ,हुए हम खुद से बेगाने
उनका पास न आना ,ये हमसे तुम जरा पुछो

बसेरा जिनकी सूरत का हमेशा आँख में रहता
उनका न नजर आना, ये हमसे तुम जरा पूछो

जीवितं है तो जीने का मजा सब लोग ले सकते
जीवितं रहके, मरने का मजा हमसे जरा पूछो

रोशन है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
अँधेरा दिन में दिख जाना ,ये हमसे तुम जरा पूछो

खुदा की बंदगी करके अपनी मन्नत पूरी सब करते
इबादत में सजा पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो

तमन्ना सबकी रहती है, की जन्नत उनको मिल जाए
जन्नत रस ना आना ये हमसे तुम जरा पूछो

सांसों के जनाजें को, तो सबने जिंदगी जाना
दो पल की जिंदगी पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो

मदन मोहन सक्सेना





Thursday, October 1, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक १ ,अक्टूबर २०१५ में



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२  , अंक १    ,अक्टूबर  २०१५ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .






मेरे जिस टुकड़े को  दो पल की दूरी बहुत सताती थी
जीवन के चौथेपन में अब ,वह  सात समन्दर पार हुआ
  
रिश्तें नातें -प्यार की बातें , इनकी परबाह कौन करें
सब कुछ पैसा ले डूबा ,अब जाने क्या व्यवहार हुआ 

दिल में दर्द नहीं उठता है भूख गरीबी की बातों से
धर्म देखिये कर्म देखिये सब कुछ तो ब्यापार हुआ

मेरे प्यारे गुलशन को न जानें किसकी नजर लगी है
युवा को अब काम नहीं है बचपन अब  बीमार हुआ

जाने कैसे ट्रेन्ड हो गए मम्मी पापा फ्रैंड हो गए
शर्म हया और लाज ना जानें आज कहाँ दो चार हुआ

ताई ताऊ , दादा दादी ,मौसा मौसी  दूर हुएँ
अब हम दो और हमारे दो का ये कैसा परिवार हुआ

ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
 





Monday, August 31, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक १२ ,सितम्बर २०१५ में


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 ग़ज़ल (इस शहर  में )




इन्सानियत दम  तोड़ती है हर गली हर चौराहें पर
ईट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है

इक नक़ली मुस्कान ही साबित है हर चेहरे पर
दोस्ती प्रेम ज़ज्बात की शहर में कीमत ही क्या है

मुकद्दर है सिकंदर तो सहारे बहुत हैं इस शहर में
शहर  में जो गिर चूका ,उसे बचाने में बचा ही क्या है

शहर  में हर तरफ भीड़ है बदहबासी है अजीब सी
घर में अब सिर्फ दीबारों के सिबा रक्खा क्या है

मौसम से बदलते है रिश्ते इस शहर में आजकल
इस शहर में अपने और गैरों में फर्क रक्खा क्या है


ग़ज़ल (इस शहर  में )

मदन मोहन सक्सेना


Tuesday, August 4, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ११ ,अगस्त २०१५ में


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ग़ज़ल (वक़्त ऐसे ही अपना ना जाया करो )


दूर रह कर हमेशा हुए फासले ,चाहें रिश्तें कितने क़रीबी  क्यों ना हों 
कर लिए बहुत काम लेन देन  के ,विन  मतलब कभी तो जाया करो 

पद पैसे की इच्छा बुरी तो नहीं मार डालो जमीर कहाँ ये सही 
जैसा देखेंगे बच्चे वही सीखेंगें ,पैर अपने माँ बाप के भी दबाया करो 

काला कौआ भी है काली कोयल भी है ,कोयल सभी को भाती  क्यों है 
सुकूँ दे चैन दे दिल को ,अपने मुहँ में ऐसे ही अल्फ़ाज़ लाया करो

जब सँघर्ष है तब ही  मँजिल मिले ,सब कुछ सुबिधा नहीं यार जीबन में है
जिस गली जिस शहर में चला सीखना , दर्द उसके मिटाने भी जाया करो 

यार जो भी करो तुम सँभल करो ,  सर उठे गर्व से ना झुके शर्म से
वक़्त रुकता है किसके लिए ये "मदन" वक़्त ऐसे ही अपना ना जाया करो 



ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

Thursday, July 16, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक १० ,जुलाई २०१५ में


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 ग़ज़ल (मुसीबत यार अच्छी है)


 

मुसीबत यार अच्छी है पता तो यार चलता है
कैसे कौन कब कितना,  रंग अपना बदलता है

किसकी कुर्बानी को किसने याद रक्खा है दुनिया में
जलता तेल और बाती है कहते दीपक जलता है

मुहब्बत को बयाँ करना किसके यार बश में है
उसकी यादों का दिया अपने दिल में यार जलता है

बैसे जीवन के सफर में तो कितने लोग मिलते हैं
किसी चेहरे पे अपना  दिल  अभी भी तो मचलता है

समय के साथ बहने का मजा कुछ और है यारों
रिश्तें भी बदल जाते समय जब भी बदलता है

मुसीबत यार अच्छी है पता तो यार चलता है
कैसे कौन कब कितना,  रंग अपना बदलता है

ग़ज़ल (मुसीबत यार अच्छी है)
 

मदन मोहन सक्सेना

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ९ ,जून २०१५ में

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ९  ,जून २०१५ में


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ग़ज़ल(ये किसकी दुआ है )



मैं रोता भला था , हँसाया मुझे क्यों
शरारत है किसकी , ये किसकी दुआ है

मुझे यार नफ़रत से डर ना लगा है
प्यार की चोट से घायल दिल ये हुआ है

वक्त की मार सबको सिखाती सबक़ है
ज़िन्दगी चंद सांसों की लगती जुआँ है

भरोसे की बुनियाद कैसी ये जर्जर
जिधर देखिएगा  धुँआ ही धुँआ है

मेहनत से बदली "मदन " देखो किस्मत
बुरे वक्त में ज़माना किसका हुआ है


मदन मोहन सक्सेना

Sunday, June 21, 2015

१२ जून दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता में मेरे ब्लॉग अंश



१२ जून दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता में मेरे ब्लॉग अंश 

मदन मोहन सक्सेना

Monday, May 25, 2015

कबिता अनबरत १ में मेरी रचनाएँ

प्रिय मित्रों
मुझे बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि मेरी रचनाओं को "कबिता अनबरत " में स्थान दिया गया है।  संपादक श्रीमती चन्द्र प्रभा सूद का बहुत बहत आभार।









मदन मोहन सक्सेना

Wednesday, May 20, 2015

अणुभारती में प्रकाशित ब्यँग्य






अणुभारती में प्रकाशित ब्यँग्य


मदन मोहन सक्सेना

परमाणु पुष्प में पूर्ब प्रकाशित मेरा ब्यंग्य

परमाणु पुष्प में पूर्ब प्रकाशित मेरा ब्यंग्य








मेरी बिदेश यात्रा .

मदन मोहन सक्सेना .

Tuesday, May 5, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ८ ,मई २०१५ में


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गजब दुनिया बनाई है, गजब हैं  लोग दुनिया के
मुलायम मलमली बिस्तर में अक्सर बह  नहीं सोते

यहाँ  हर रोज सपने  क्यों, दम अपना  तोड़ देते हैं 
नहीं है पास में बिस्तर ,बह  नींदें चैन की सोते

किसी के पास फुर्सत है,  फुर्सत ही रहा करती \
इच्छा है कुछ करने की,  पर मौके ही नहीं होते

जिसे मौका दिया हमने  , कुछ न कुछ करेगा बह  
किया कुछ भी नहीं ,किन्तु   सपने रोज बह  बोते

आज  रोता नहीं है कोई भी  किसी और  के लिए 
सब अपनी अपनी किस्मत को ले लेकर खूब रोते

मदन मोहन सक्सेना







Thursday, April 9, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ७ ,अप्रैल २०१५ में







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 ग़ज़ल (सिलसिला )

हर सुबह  रंगीन   अपनी  शाम  हर  मदहोश है
वक़्त की रंगीनियों का चल रहा है सिलसिला

चार पल की जिंदगी में ,मिल गयी सदियों की दौलत
जब मिल गयी नजरें हमारी ,दिल से दिल अपना मिला

नाज अपनी जिंदगी पर ,क्यों न हो हमको भला
कई मुद्द्दतों के बाद फिर  अरमानों का पत्ता हिला

इश्क क्या है ,आज इसकी लग गयी हमको खबर
रफ्ता रफ्ता ढह गया, तन्हाई का अपना किला

वक़्त भी कुछ इस तरह से आज अपने साथ है
चाँद सूरज फूल में बस यार का चेहरा मिला

दर्द मिलने पर शिकायत ,क्यों भला करते मदन
जब दर्द को देखा तो  दिल में मुस्कराते ही मिला


ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

Monday, March 9, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ७ ,मार्च २०१५ में

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ७  ,मार्च  २०१५ में


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ग़ज़ल (कौन सुनेगा अपनी बात )

किसको अपना दर्द बतायें कौन सुनेगा अपनी बात
सुनने बाले ब्याकुल हैं अब अपना राग सुनाने को

हिम्मत साथ नहीं देती है खुद के अंदर झाँक सके
सबने खूब बहाने  सोचे मंदिर मस्जिद जाने को

कैसी रीति बनायी मौला चादर पे चादर चढ़ती है
द्वार तुम्हारे खड़ा है बंदा , नंगा बदन जड़ाने को

दूध कहाँ से पायेंगें जो, पीने  को पानी न मिलता
भक्ति की ये कैसी शक्ति पत्थर चला नहाने को

जिसे देखिये मिलता है अब चेहरे पर मुस्कान लिए
मुश्किल से मिलती है बातें दिल से आज लगाने को

क्यों दिल में दर्द जगा देती है  तेरी यादों की खुशबु
गीत ग़ज़ल कबिता निकली है महफ़िल को महकाने  को



प्रस्तुति
मदन मोहन सक्सेना
 

Wednesday, February 11, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ६ ,फरबरी २०१५ में


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ६  ,फरबरी  २०१५ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
 

 
 

  ग़ज़ल (जीबन एक बुलबुला )

गज़ब हैं रंग जीबन के गजब किस्से लगा करते
जबानी जब  कदम चूमे बचपन छूट जाता है

बंगला  ,कार, ओहदे को पाने के ही चक्कर में
सीधा सच्चा बच्चों का आचरण छूट जाता है

जबानी के नशें में लोग  क्या क्या ना किया करते
ढलते ही जबानी के  बुढ़ापा टूट जाता है

समय के साथ बहना ही असल तो यार जीबन है
समय को गर नहीं समझे  समय फिर रूठ जाता है

जियो ऐसे कि औरों को भी जीने का मजा आये
मदन ,जीबन क्या ,बुलबुला है, आखिर फुट जाता है



मदन मोहन सक्सेना

Thursday, January 8, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ५ ,जनबरी २०१५ में


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जिंदगी जिंदगी

तुझे पा लिया है जग पा लिया है
अब दिल में समाने लगी जिंदगी है

कभी गर्दिशों की कहानी लगी थी
मगर आज भाने लगी जिंदगी है

समय कैसे जाता समझ मैं ना पाता
अब समय को चुराने लगी जिंदगी है

कभी ख्बाब में तू हमारे थी आती
अब सपने सजाने लगी जिंदगी है

तेरे प्यार का ये असर हो गया है
अब मिलने मिलाने लगी जिंदगी है

मैं खुद को भुलाता, तू खुद को भुलाती
अब खुद को भुलाने लगी जिंदगी है


मदन मोहन सक्सेना