Monday, October 5, 2015

मेरी रचना मदुराक्षर पत्रिका में



प्रिय मित्रो मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी रचना मदुराक्षर पत्रिका मेंशामिल की गयी है।  आप की प्रतिक्रिया का स्वागत है. 

हमको कुछ नहीं मालूम

देखा जब नहीं उनको और हमने गीत नहीं गाया
जमाना हमसे ये बोला की बसंत माह क्यों नहीं आया

बसंत माह गुम हुआ कैसे ,क्या तुमको कुछ चला मालूम
कहा हमने ज़माने से की हमको कुछ नहीं मालूम

पाकर के जिसे दिल में ,हुए हम खुद से बेगाने
उनका पास न आना ,ये हमसे तुम जरा पुछो

बसेरा जिनकी सूरत का हमेशा आँख में रहता
उनका न नजर आना, ये हमसे तुम जरा पूछो

जीवितं है तो जीने का मजा सब लोग ले सकते
जीवितं रहके, मरने का मजा हमसे जरा पूछो

रोशन है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
अँधेरा दिन में दिख जाना ,ये हमसे तुम जरा पूछो

खुदा की बंदगी करके अपनी मन्नत पूरी सब करते
इबादत में सजा पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो

तमन्ना सबकी रहती है, की जन्नत उनको मिल जाए
जन्नत रस ना आना ये हमसे तुम जरा पूछो

सांसों के जनाजें को, तो सबने जिंदगी जाना
दो पल की जिंदगी पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो

मदन मोहन सक्सेना





Thursday, October 1, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक १ ,अक्टूबर २०१५ में



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२  , अंक १    ,अक्टूबर  २०१५ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .






मेरे जिस टुकड़े को  दो पल की दूरी बहुत सताती थी
जीवन के चौथेपन में अब ,वह  सात समन्दर पार हुआ
  
रिश्तें नातें -प्यार की बातें , इनकी परबाह कौन करें
सब कुछ पैसा ले डूबा ,अब जाने क्या व्यवहार हुआ 

दिल में दर्द नहीं उठता है भूख गरीबी की बातों से
धर्म देखिये कर्म देखिये सब कुछ तो ब्यापार हुआ

मेरे प्यारे गुलशन को न जानें किसकी नजर लगी है
युवा को अब काम नहीं है बचपन अब  बीमार हुआ

जाने कैसे ट्रेन्ड हो गए मम्मी पापा फ्रैंड हो गए
शर्म हया और लाज ना जानें आज कहाँ दो चार हुआ

ताई ताऊ , दादा दादी ,मौसा मौसी  दूर हुएँ
अब हम दो और हमारे दो का ये कैसा परिवार हुआ

ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना