Tuesday, August 4, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ११ ,अगस्त २०१५ में


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ११     ,अगस्त २०१५ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .










ग़ज़ल (वक़्त ऐसे ही अपना ना जाया करो )


दूर रह कर हमेशा हुए फासले ,चाहें रिश्तें कितने क़रीबी  क्यों ना हों 
कर लिए बहुत काम लेन देन  के ,विन  मतलब कभी तो जाया करो 

पद पैसे की इच्छा बुरी तो नहीं मार डालो जमीर कहाँ ये सही 
जैसा देखेंगे बच्चे वही सीखेंगें ,पैर अपने माँ बाप के भी दबाया करो 

काला कौआ भी है काली कोयल भी है ,कोयल सभी को भाती  क्यों है 
सुकूँ दे चैन दे दिल को ,अपने मुहँ में ऐसे ही अल्फ़ाज़ लाया करो

जब सँघर्ष है तब ही  मँजिल मिले ,सब कुछ सुबिधा नहीं यार जीबन में है
जिस गली जिस शहर में चला सीखना , दर्द उसके मिटाने भी जाया करो 

यार जो भी करो तुम सँभल करो ,  सर उठे गर्व से ना झुके शर्म से
वक़्त रुकता है किसके लिए ये "मदन" वक़्त ऐसे ही अपना ना जाया करो 



ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

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