Monday, August 31, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक १२ ,सितम्बर २०१५ में


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक १२      ,सितम्बर २०१५ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .




 ग़ज़ल (इस शहर  में )




इन्सानियत दम  तोड़ती है हर गली हर चौराहें पर
ईट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है

इक नक़ली मुस्कान ही साबित है हर चेहरे पर
दोस्ती प्रेम ज़ज्बात की शहर में कीमत ही क्या है

मुकद्दर है सिकंदर तो सहारे बहुत हैं इस शहर में
शहर  में जो गिर चूका ,उसे बचाने में बचा ही क्या है

शहर  में हर तरफ भीड़ है बदहबासी है अजीब सी
घर में अब सिर्फ दीबारों के सिबा रक्खा क्या है

मौसम से बदलते है रिश्ते इस शहर में आजकल
इस शहर में अपने और गैरों में फर्क रक्खा क्या है


ग़ज़ल (इस शहर  में )

मदन मोहन सक्सेना


Tuesday, August 4, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ११ ,अगस्त २०१५ में


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ११     ,अगस्त २०१५ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .










ग़ज़ल (वक़्त ऐसे ही अपना ना जाया करो )


दूर रह कर हमेशा हुए फासले ,चाहें रिश्तें कितने क़रीबी  क्यों ना हों 
कर लिए बहुत काम लेन देन  के ,विन  मतलब कभी तो जाया करो 

पद पैसे की इच्छा बुरी तो नहीं मार डालो जमीर कहाँ ये सही 
जैसा देखेंगे बच्चे वही सीखेंगें ,पैर अपने माँ बाप के भी दबाया करो 

काला कौआ भी है काली कोयल भी है ,कोयल सभी को भाती  क्यों है 
सुकूँ दे चैन दे दिल को ,अपने मुहँ में ऐसे ही अल्फ़ाज़ लाया करो

जब सँघर्ष है तब ही  मँजिल मिले ,सब कुछ सुबिधा नहीं यार जीबन में है
जिस गली जिस शहर में चला सीखना , दर्द उसके मिटाने भी जाया करो 

यार जो भी करो तुम सँभल करो ,  सर उठे गर्व से ना झुके शर्म से
वक़्त रुकता है किसके लिए ये "मदन" वक़्त ऐसे ही अपना ना जाया करो 



ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना