Thursday, April 9, 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ७ ,अप्रैल २०१५ में







प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक ७   ,अप्रैल  २०१५ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .


 ग़ज़ल (सिलसिला )

हर सुबह  रंगीन   अपनी  शाम  हर  मदहोश है
वक़्त की रंगीनियों का चल रहा है सिलसिला

चार पल की जिंदगी में ,मिल गयी सदियों की दौलत
जब मिल गयी नजरें हमारी ,दिल से दिल अपना मिला

नाज अपनी जिंदगी पर ,क्यों न हो हमको भला
कई मुद्द्दतों के बाद फिर  अरमानों का पत्ता हिला

इश्क क्या है ,आज इसकी लग गयी हमको खबर
रफ्ता रफ्ता ढह गया, तन्हाई का अपना किला

वक़्त भी कुछ इस तरह से आज अपने साथ है
चाँद सूरज फूल में बस यार का चेहरा मिला

दर्द मिलने पर शिकायत ,क्यों भला करते मदन
जब दर्द को देखा तो  दिल में मुस्कराते ही मिला


ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना