Friday, August 8, 2014

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष , बर्ष -३ , अंक ४ , जून २०१४ में


मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष , बर्ष -३ , अंक ४   , जून  २०१४ में






प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष , बर्ष -३ , अंक ४   , जून  २०१४ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .







आज के हालत में किस किस से हम शिकवा करें .
हो रही अपनों से क्यों आज यारों जंग है

खून भी पानी की माफिक बिक रहा बाजार में
नाम से पहचान होती किसमें किसका रंग है

सत्य की सुंदर गली में मन नहीं लगता है अब
जा नहीं सकते है उसमें ये तो काफी तंग है

देखकर दुशमन भी कहते क्या करे हम आपका
एक तो पहले से घायल गल चुके सब अंग है..

बंट गए है आज हम इस तरह से देखिये
हर तरफ आबाज आती क्या अजीव संग है

जुल्म की हर दास्ताँ को, खामोश होकर सह चुके
ब्यक्त करने का मदन ये क्या अजीव ढंग है…


ग़ज़ल : मदन मोहन सक्सेना

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