Thursday, December 18, 2014

मेरी पोस्ट " जिंदगी जिंदगी" ओपन बुक्स ऑनलाइन वेव साईट में







प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि मेरी पोस्ट  " जिंदगी जिंदगी " ओपन बुक्स ऑनलाइन    वेव साईट में शामिल की गयी है।  आप सब अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएं करायें। लिंक नीचे दिया गया है।

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 जिंदगी जिंदगी

तुझे पा लिया है जग पा लिया है
अब दिल में समाने लगी जिंदगी है

कभी गर्दिशों की कहानी लगी थी
मगर आज भाने लगी जिंदगी है

समय कैसे जाता समझ मैं ना पाता
अब समय को चुराने लगी जिंदगी है

कभी ख्बाब में तू हमारे थी आती
अब सपने सजाने लगी जिंदगी है

तेरे प्यार का ये असर हो गया है
अब मिलने मिलाने लगी जिंदगी है

मैं खुद को भुलाता, तू खुद को भुलाती
अब खुद को भुलाने लगी जिंदगी है


मदन मोहन सक्सेना


मेरी पोस्ट " जिंदगी जिंदगी" ओपन बुक्स ऑनलाइन वेव साईट में

Monday, December 1, 2014

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक 3 ,दिसम्बर २०१४ में


 
 
 
 
 
प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय  ,बर्ष -१ , अंक 3  ,दिसम्बर   २०१४ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
 





अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में 
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं  

महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं  

ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं

अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना
 

Sunday, November 9, 2014

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक २ ,नवम्बर २०१४ में

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक २  ,नवम्बर  २०१४ में

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय  ,बर्ष -१ , अंक २  ,नवम्बर  २०१४ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
 
 



देखा जब नहीं उनको और हमने गीत नहीं गाया
जमाना हमसे ये बोला की बसंत माह क्यों नहीं आया

बसंत माह गुम हुआ कैसे ,क्या तुमको कुछ चला मालूम
कहा हमने ज़माने से कि हमको कुछ नहीं मालूम

पाकर के जिसे दिल में ,हुए हम खुद से बेगाने
उनका पास न आना ,ये हमसे तुम जरा पुछो

बसेरा जिनकी सूरत का हमेशा आँख में रहता
उनका न नजर आना, ये हमसे तुम जरा पूछो

जीवित  हैं  तो जीने का मजा सब लोग ले सकते
जीवित  रहके, मरने का मजा हमसे जरा पूछो

रोशन है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
अँधेरा दिन में दिख जाना ,ये हमसे तुम जरा पूछो

खुदा की बंदगी करके अपनी मन्नत पूरी सब करते
इबादत में सजा पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो

तमन्ना सबकी रहती है, की जन्नत उनको मिल जाए
जन्नत रस ना आना ये हमसे तुम जरा पूछो

साँसों  के जनाजें को, तो सबने जिंदगी जाना
दो पल की जिंदगी पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो



मदन मोहन सक्सेना

Thursday, October 9, 2014

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक १ , अक्टूबर २०१४ में

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय  ,बर्ष -१  , अंक १  , अक्टूबर  २०१४ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
 
 
 गज़ल  (ये कैसा परिवार)

मेरे जिस टुकड़े को  दो पल की दूरी बहुत सताती थी
जीवन के चौथेपन में अब ,वह  सात समन्दर पार हुआ
   
रिश्तें नातें -प्यार की बातें , इनकी परबाह कौन करें
सब कुछ पैसा ले डूबा ,अब जाने क्या व्यवहार हुआ
 
दिल में दर्द नहीं उठता है भूख गरीबी की बातों से
धर्म देखिये कर्म देखिये सब कुछ तो ब्यापार हुआ
 
मेरे प्यारे गुलशन को न जानें किसकी नजर लगी है
युवा को अब काम नहीं है बचपन अब  बीमार हुआ

जाने कैसे ट्रेन्ड हो गए मम्मी पापा फ्रैंड हो गए
शर्म हया और लाज ना जानें आज कहाँ दो चार हुआ

ताई ताऊ , दादा दादी ,मौसा मौसी  दूर हुएँ
अब हम दो और हमारे दो का ये कैसा परिवार हुआ


ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

Monday, September 1, 2014

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक ७ , सितम्बर २०१४ में


मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक ७    ,    सितम्बर २०१४  में

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक ७    , सितम्बर २०१४  में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .






 
किसको आज फुर्सत है किसी की बात सुनने की
अपने ख्बाबों और ख़यालों में सभी मशगूल दिखतें हैं

जीबन का सफ़र क्या क्या सबक सिखाता है यारों
मुश्किल में बहुत मुश्किल से अपने दोस्त दिखतें हैं

क्यों सच्ची और दिल की बात ख़बरों में नहीं दिखती
नहीं लेना हक़ीक़त से क्यों मन से आज लिखतें हैं

धर्म देखो कर्म देखो अब असर दिखता है पैसों का
भरोसा हो तो किस पर हो सभी इक जैसे दिखतें हैं

सियासत में न इज्ज़त की,न मेहनत की कद्र यारों
सुहाने स्वप्न और ज़ज्बात यहाँ हर रोज बिकते हैं

दुनिया में जिधर देखो हज़ारों रास्ते दिखते हैं
मंजिल चाहे मिल जाए बस रास्ते नहीं मिलते हैं




मदन  मोहन  सक्सेना 



Friday, August 22, 2014

मेरी पोस्ट ग़ज़ल (फुर्सत में सियासत) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में


मेरी पोस्ट ग़ज़ल (फुर्सत में सियासत) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में 





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किसको आज फुर्सत है किसी की बात सुनने की
अपने ख्बाबों और ख़यालों में सभी मशगूल दिखतें हैं


जीबन का सफ़र क्या क्या सबक सिखाता है यारों
मुश्किल में बहुत मुश्किल से अपने दोस्त दिखतें हैं


क्यों सच्ची और दिल की बात ख़बरों में नहीं दिखती
नहीं लेना हक़ीक़त से क्यों मन से आज लिखतें हैं


धर्म देखो कर्म देखो अब असर दिखता है पैसों का
भरोसा हो तो किस पर हो सभी इक जैसे दिखतें हैं


सियासत में न इज्ज़त की,न मेहनत की कद्र यारों
सुहाने स्वप्न और ज़ज्बात यहाँ हर रोज बिकते हैं


दुनिया में जिधर देखो हज़ारों रास्ते दिखते हैं
मंजिल चाहे मिल जाए बस रास्ते नहीं मिलते हैं




ग़ज़ल: फुर्सत में सियासत

मदन  मोहन  सक्सेना



Wednesday, August 20, 2014

मेरी पोस्ट ग़ज़ल (जमीं से आसमाँ जाना किसे अच्छा नहीं लगता) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में


मेरी पोस्ट ग़ज़ल (जमीं से आसमाँ जाना किसे अच्छा नहीं लगता) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में


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जमीं से आसमाँ जाना किसे अच्छा नहीं लगता
चाह कर भी बुलन्दी पर कोई हमेशा रह नहीं सकता


जो दिल को रास ना आये हम ऐसे बोल क्यों बोलें
हर बात की एक सीमा है उससे ज्यादा कोई सह नहीं सकता


आवाज़ों की महफ़िल में दिल की बात दब जाती है
जुबां से दिल की बात को हर कोई कह नहीं सकता


कभी ख्बाबों में रहतें हैं कभी यादों में रहते हैं
समय के साथ दुनियां में यारों वह रह नहीं सकता


पाने की ख्वाहिश में हम क्या-क्या खो देते है
कहना भी अगर चाहें मगर कोई कह नहीं सकता


जमीं से आसमाँ जाना किसे अच्छा नहीं लगता
चाह कर भी बुलन्दी पर कोई हमेशा रह नहीं सकता



मदन मोहन सक्सेना

मेरी पोस्ट ग़ज़ल (कंक्रीट के जंगल) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में


मेरी पोस्ट
ग़ज़ल (कंक्रीट के जंगल) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में


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 ग़ज़ल (कंक्रीट के जंगल)
 
कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो, ऐसा घर बनातें हैं

दीवारें ही दीवारें नजर आयें घरों में क्यों
पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं

मिलने का चलन यारों ना जानें कब से गुम अब है
टीवी और नेट से ही समय अपना बिताते हैं

ना दिल में ही जगह यारों ना घर में ही जगह यारों
भूले से भी मेहमाँ को नहीं घर में टिकाते हैं

अब सन्नाटे के घेरे में ,जरुरत भर ही आवाजें
घर में दिल की बात, दिल में ही यारों अब दबातें हैं

 
 मदन मोहन सक्सेना
 

Wednesday, August 13, 2014

मेरी पोस्ट ग़ज़ल(खुद को रंग बदलते देखा) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में





मेरी पोस्ट ग़ज़ल(खुद को रंग  बदलते देखा) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में


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ग़ज़ल(खुद को रंग  बदलते देखा)



सपनीली दुनियाँ में यारों सपनें खूब मचलते देखे
रंग बदलती दुनियाँ देखी खुद को रंग बदलते देखा

सुबिधाभोगी को एक जगह जमते देख़ा
भूखों और गरीबोँ को दर-दर भटकते देखा

देखा हर मौसम में मैनें अपने बच्चों को कठिनाई में
मैनें टॉमी, डॉगी, शेरू को, खाते देखा,पलते देखा

पैसों की ताकत के आगे गिरता हुआ ज़मीर देखा
कितना काम जरुरी हो पर उसको मैंने टलते देखा

रिश्तें नातें प्यार की बातें, इनको खूब सिसकते देखा
नए ज़माने के इस पल में, अपनों को भी छलते देखा


मदन मोहन सक्सेना


मेरी पोस्ट ग़ज़ल(समय वह और था यारों) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में


मेरी पोस्ट ग़ज़ल(समय वह और था  यारों) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में




मेरी पोस्ट ग़ज़ल(समय वह और था  यारों) आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में


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समय वह और था यारों


अपने थे, समय भी था, समय वह और था यारों
अब समय पर भी नहीं अपने, मजबूरी का रेला है

हर इन्सां की दुनियाँ में इक जैसी कहानी है
तन्हा रहता है भीतर से, बाहर रिश्तों का मेला है

दिन कैसे दिखाती है पैसोँ की ललक देखों
तन्हा माँ-बाप घर में हैं, उधर बेटा अकेला है

रुपये पैसोँ की कीमत को वह ही जान सकता है
अपने बचपन में गरीबी का जिसने दंश झेला है

इधर ये दिल अकेला है, उधर तन्हा अकेली तुम
बहुत मुश्किल है ये कहना किसने खेल खेला है

जियो ऐसे कि हर इक पल, मानो आख़िरी पल है
हम आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है


मदन मोहन सक्सेना

Friday, August 8, 2014

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक २ , अगस्त २०१४ में


मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक २  , अगस्त  २०१४ में



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक ६   , अगस्त २०१४  में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .





 



दिल के पास है लेकिन निगाहों से जो ओझल है
ख्बाबों में अक्सर वह हमारे पास आती है


अपनों संग समय गुजरे इससे बेहतर क्या होगा
कोई तन्हा रहना नहीं चाहें मजबूरी बनाती है


किसी के हाल पर यारों,कौन कब आसूँ बहाता है
बिना मेहनत के मंजिल कब किसके हाथ आती है


क्यों हर कोई परेशां है बगल बाले की किस्मत से
दशा कैसी भी अपनी हो किसको रास आती है


दिल की बात दिल में ही दफ़न कर लो तो अच्छा है
पत्थर दिल ज़माने में कहीं ये बात भाती है


भरोसा खुद पर करके जो समय की नब्ज़ को जानें
"मदन " हताशा और नाकामी उनसे दूर जाती है




मदन मोहन सक्सेना

मेरी पोस्ट "क्यों हर कोई परेशां है" ओपन बुक्स ऑनलाइन वेव साईट में

मेरी पोस्ट  "क्यों हर कोई परेशां है" ओपन बुक्स ऑनलाइन    वेव साईट में






प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि मेरी पोस्ट  "क्यों हर कोई परेशां है" ओपन बुक्स ऑनलाइन    वेव साईट में शामिल की गयी है।  आप सब अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएं करायें। लिंक नीचे दिया गया है।






Your blog post "क्यों हर कोई परेशां है" has been approved on Open Books Online.

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क्यों हर कोई परेशां है

दिल के पास है लेकिन निगाहों से जो ओझल है
ख्बाबों में अक्सर वह हमारे पास आती है


अपनों संग समय गुजरे इससे बेहतर क्या होगा
कोई तन्हा रहना नहीं चाहें मजबूरी बनाती है


किसी के हाल पर यारों,कौन कब आसूँ बहाता है
बिना मेहनत के मंजिल कब किसके हाथ आती है


क्यों हर कोई परेशां है बगल बाले की किस्मत से
दशा कैसी भी अपनी हो किसको रास आती है


दिल की बात दिल में ही दफ़न कर लो तो अच्छा है
पत्थर दिल ज़माने में कहीं ये बात भाती है


भरोसा खुद पर करके जो समय की नब्ज़ को जानें
"मदन " हताशा और नाकामी उनसे दूर जाती है




मदन मोहन सक्सेना

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक ५ , जुलाई २०१४ में

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक ५   , जुलाई   २०१४ में







प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक ५   , जुलाई   २०१४ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .





  


जाना जिनको कल अपना आज हुए बो पराये है
दुनिया के सारे गम आज मेरे पास आए है


न पीने का है आज मौसम ,न काली सी घटाए है
आज फिर से नैनो में क्यों अश्क बहके आए है


रोशनी से आशियाना यारो अक्सर जलता है
अँधेरा मेरे मन को आज खूब ज्यादा भाए है


जब जब देखा मैंने दिल को ,ये मुस्कराके कहता है
और जगह बाक़ी है, जखम कम ही पाए है


अब तो अपनी किस्मत पर रोना भी नहीं आता
दर्दे दिल को पास रखकर हम हमेशा मुस्कराए है


मदन मोहन सक्सेना

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष , बर्ष -३ , अंक ४ , जून २०१४ में


मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष , बर्ष -३ , अंक ४   , जून  २०१४ में






प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष , बर्ष -३ , अंक ४   , जून  २०१४ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .







आज के हालत में किस किस से हम शिकवा करें .
हो रही अपनों से क्यों आज यारों जंग है

खून भी पानी की माफिक बिक रहा बाजार में
नाम से पहचान होती किसमें किसका रंग है

सत्य की सुंदर गली में मन नहीं लगता है अब
जा नहीं सकते है उसमें ये तो काफी तंग है

देखकर दुशमन भी कहते क्या करे हम आपका
एक तो पहले से घायल गल चुके सब अंग है..

बंट गए है आज हम इस तरह से देखिये
हर तरफ आबाज आती क्या अजीव संग है

जुल्म की हर दास्ताँ को, खामोश होकर सह चुके
ब्यक्त करने का मदन ये क्या अजीव ढंग है…


ग़ज़ल : मदन मोहन सक्सेना

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक 3 , मई २०१४ में

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -३ , अंक 3  , मई  २०१४ में




प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष , बर्ष -३ , अंक 3  , मई  २०१४ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .





















जानकर अपना तुम्हे हम हो गए अनजान खुद से
दर्द है क्यों अब तलक अपना हमें माना नहीं नहीं है


अब सुबह से शाम तक बस नाम तेरा है लबो पर
साथ हो अपना तुम्हारा और कुछ पाना नहीं है


गर कहोगी रात को दिन ,दिन लिखा बोला करेंगे
गीत जो तुमको न भाए बो हमें गाना नहीं है


गर खुदा भी रूठ जाये तो हमें मंजूर होगा
पास बो अपने बुलाये तो हमें जाना नहीं है


प्यार में गर मौत दे दें तो हमें शिकबा नहीं है
प्यार में बो प्यार से कुछ भी कहें ताना नहीं है



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना
 



मेरी पोस्ट (प्यार की बातें प्यार से) जागरण जंक्शन पर

मेरी पोस्ट (प्यार की  बातें प्यार  से)  जागरण जंक्शन पर  





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बसंत के महीने में हर जगह प्रेम की चर्चा हो रही है . आज कल सच्चा प्यार किसे मिलता है कहना मुश्किल है . भक्त भगबान से प्यार मन्नत के लिए कर रहा है .पति पत्नी ,माँ बेटा, दोस्त दोस्त ,रिश्तेदारी की बुनियाद मूलता प्यार पर ही टिकी हुई है.प्यार के इस मौसम और मौके पर कुछ कबिता तो बनती ही हैं .
एक
प्यार के गीत जब गुनगुनाओगे तुम ,उस पल खार से प्यार पाओगे तुम
प्यार दौलत से मिलता नहीं है कभी ,प्यार पर हर किसी का अधिकार है
प्यार रामा में है प्यारा अल्लाह लगे ,प्यार के सूर तुलसी ने किस्से लिखे
प्यार बिन जीना दुनिया में बेकार है ,प्यार बिन सूना सारा ये संसार है
प्यार पाने को दुनिया में तरसे सभी, प्यार पाकर के हर्षित हुए है सभी
प्यार से मिट गए सारे शिकबे गले ,प्यारी बातों पर हमको ऐतबार है
प्यार से अपना जीवन सभारों जरा ,प्यार से रहकर हर पल गुजारो जरा
प्यार से मंजिल पाना है मुश्किल नहीं , इन बातों से बिलकुल न इंकार है
प्यार के किस्से हमको निराले लगे ,बोलने के समय मुहँ में ताले लगे
हाल दिल का बताने जब हम मिले ,उस समय को हुयें हम लाचार हैं
प्यार से प्यारे मेरे जो दिलदार है ,जिनके दम से हँसीं मेरा संसार है
उनकी नजरो से नजरें जब जब मिलीं,उस पल को हुए उनके दीदार हैं
प्यार जीवन में खुशियाँ लुटाता रहा ,भेद आपस के हर पल मिटाता रहा
प्यार जीवन की सुन्दर कहानी सी है ,उस कहानी का मदन एक किरदार है
दो
प्यार पाना चाहता हूँ प्यार पाना चाहता हूँ
प्यार पतझड़ है नहीं फूलों भरा मधुमास है
तृप्ती हो मन की यहाँ ऐसी अनोखी प्यास है
प्यार के मधुमास में साबन मनाना चाहता हूँ
प्यार पाना चाहता हूँ प्यार पाना चाहता हूँ
प्यार में खुशियाँ भरी हैं प्यार में आंसू भरे
या कि दामन में संजोएँ स्वर्ण के सिक्के खरे
प्यार के अस्तित्ब को मिटते कभी देखा नहीं
प्यार के हैं मोल सिक्कों से कभी होते नहीं
प्यार पाना चाहता हूँ प्यार पाना चाहता हूँ
प्यार दिल की बाढ़ है और मन की पीर है
बेबसी में मन से बहता यह नयन का तीर है
प्यार है भागीरथी और प्यार जीवन सारथी
प्यार है पूजा हमारी प्यार मेरी आरती
प्यार से ही स्बांस की सरगम बजाना चाहता हूँ
प्यार पाना चाहता हूँ प्यार पाना चाहता हूँ
तीन
खुदा के नाम से पहले हम उनका नाम लेते हैं
खुदा का नाम लेने में तो हमसे देर हो जाती.
खुदा के नाम से पहले हम उनका नाम लेते हैं..
पाया है सदा उनको खुदा के रूप में दिल में
उनकी बंदगी कर के खुदा को पूज लेते हैं..
न मंदिर में न मस्जिद में न गिरजा में हम जाते हैं
जब नजरें चार उनसे हो ,खुदा के दर्श पाते हैं
खुदा का नाम लेने में तो हमसे देर हो जाती.
खुदा के नाम से पहले हम उनका नाम लेते हैं..
मदन मोहन सक्सेना

मेरी पोस्ट (मेरी आँखों से ) ओपन बुक्स ऑनलाइन वेव साईट में

मेरी पोस्ट  (मेरी आँखों से ) ओपन बुक्स ऑनलाइन    वेव साईट में



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मेरी आँखों से
सपनीली दुनियाँ मेँ यारों सपनें खूब मचलते देखे
रंग बदलती दूनियाँ देखी ,खुद को रंग बदलते देखा

सुबिधाभोगी को तो मैनें एक जगह पर जमते देख़ा
भूखों और गरीबोँ को तो दर दर मैनें चलते देखा

देखा हर मौसम में मैनें अपने बच्चों को कठिनाई में
मैनें टॉमी डॉगी शेरू को, खाते देखा पलते देखा

पैसों की ताकत के आगे गिरता हुआ जमीर मिला
कितना काम जरुरी हो पर उसको मैने टलते देखा

रिश्तें नातें प्यार की बातें ,इनको खूब सिसकते देखा
नए ज़माने के इस पल मेँ अपनों को भी छलते देखा




 
मदन मोहन सक्सेना

मेरी पोस्ट आँख मिचौली को जागरण जंक्शन में

मेरी पोस्ट आँख मिचौली को जागरण जंक्शन में 





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आँख मिचौली


जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा
शहर में ठिकाना खोजा
पता नहीं आजकल
हर कोई मुझसे
आँख मिचौली का खेल क्यों खेला करता है
जिसकी जब जरुरत होती है
बह बहाँ से गायब मिलता है
और जब जिसे जहाँ नहीं होना चाहियें
जबरदस्ती कब्ज़ा जमा लेता है
कल की ही बात है
मेरी बहुत दिनों के बात उससे मुलाकात हुयी
सोचा गिले शिक्बे दूर कर लूँ
पहले गाँव में तो उससे रोज का मिलना जुलना होता था
जबसे मुंबई में इधर क्या आया
या कहिये
मुंबई जैसेबड़े शहरों की दीबारों के बीच आकर फँस गया
पूछा
क्या बात है
आजकल आती नहीं हो इधर।
पहले तो हमारे आंगन भर-भर आती थी
दादी की तरह छत पर पसरी रहती थी हमेशा
तंग दिल पड़ोसियों ने
अपनी इमारतों की दीवार क्या ऊँची की
तुम तो इधर का रास्ता ही भूल गयी
तुम्हें अक्सर सुबह देखता हूं
कि पड़ी रहती हो
तंगदिल और धनी लोगों
के छज्जों पर
हमारी छत तो
अब तुम्हें भाती ही नहीं है
क्या करें
बहुत मुश्किल होती है
जब कोई अपना (बर्षों से परिचित)
आपको आपके हालत पर छोड़कर
चला जाता है
लेकिन याद रखो
ऊँची इमारतों के ऊँचे लोग
बड़ी सादगी से लूटते हैं
फिर चाहे वो दौलत हो या इज्जत हो
महीनों के बाद मिली हो
इसलिए सारी शिकायतें सुना डाली
उसने कुछ बोला नहीं
बस हवा में खुशबु घोल कर
खिड़की के पीछे चली गई
सोचा कि उसे पकड़कर आगोश में भर लूँ
धत्त तेरी की
फिर गायब
ये महानगर की धूप भी न
बिलकुल तुम पर गई है
हमेशा आँख मिचौली का खेल खेला करती है
बिना ये जाने
कि इस समय इस का मौका है भी या नहीं …

मदन मोहन सक्सेना


मेरी पोस्ट (जागरण जंक्शन फोरम सोशल मीडिया ) को जागरण जंक्शन में

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सोशल मीडिया
सोशल मीडिया पर गैर जुम्मेदारी का आरोप लगाकर उसे नियंत्रित करने का सरकार का इरादा वह भी सभी राजनैतिक दलों के सहयोग से बहुत सराहनीय नहीं कहा जा सकता| हाँ जो लेखक गैर जुम्मेदार हैं उन्हें जुम्मेदारी का अहसास सामाजिक जीवन में सीखना ही होगा यही लोकतंत्र की संवैधानिक अपेक्षा है|

सम्प्रति सरकार की इस पहल में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के द्वारा हाँ में हाँ मिलाना बड़ा आश्चर्यजनक लगता है, जहाँ अधिकांश समाचार अर्ध सत्य भ्रामक तथा राजनैतिक दलों एवं चैनल्स समूह के स्वामियों के हित पोषण हेतु प्रसारित किये जाते हैं| जिन विषयों पर वहाँ परिचर्चा आयोजित होती है उसके कतिपय सहभागी तो जाति धर्म क्षेत्र और रूढिग्रस्त पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहते हैं, और लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक सोच से रिक्त होते हैं, फिर भी उनके हास्यास्पद विचार जनता सुनती है| इन परिचर्चाओं में भाषा की अश्लीलता आये दिन प्रदर्शित होती रहती है| यही नहीं कभी-कभी चैनल्स के सम्पादकीय विभाग की समझ और योग्यता उपहासजनक लगती है दो-चार शब्दों के केपशन तक गलत और अशुद्ध प्रसारित किये जाते हैं|

फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नियंत्रण की बात लोकतांत्रिक समाज को शोभा नहीं देती। लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए सोशल नेटवर्क सबसे ज्यादा उपयोगी साबित होता है। जहां तक महिलाओं का मसला है तो ऐसी साइटों के माध्यम से वह अपने अधिकारों से संबंधित जानकारियां हासिल कर सकती हैं, अपनी बात अन्य लोगों को बता सकती हैं। वहीं दूसरी ओर इन सभी साइटों की ही वजह से आमजन अपने आसपास घट रही घटनाओं से परिचित होकर उन पर अपनी टिप्पणी कर सकते हैं, उनसे जुड़े पक्षों से अवगत हो सकते है। साथ ही सरकारी क्रियाकलापों और योजनाओं की जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं। इस वर्ग में शामिल लोग यह भी स्वीकार करते हैं कि हालांकि कुछ शरारती तत्व ऐसे हैं जो शांति व्यवस्था को आहत करने के लिए इन सोशल नेटवर्किंग साइटों का प्रयोग करते हैं लेकिन कुछ चुनिंदा लोगों की वजह से सोशल नेटवर्किंग को नियंत्रित करना सही नहीं है क्योंकि ये वो लोग हैं जो कोई ना कोई माध्यम ढूंढ़कर अपना मकसद पूरा कर ही लेंगे।

प्रिंट मीडिया के कतिपय लेख अवश्य ही विचारणीय होते हैं लेकिन उन्हें भी इतना समझना चाहिये कि उनके कितने समाचार निष्पक्षता के प्रमाण माने जा सकते हैं? क्या विज्ञापन के मोह में उनका लेखकीय दायित्व प्रभावित नहीं होता है? क्या पेड़ न्यूज़ नहीं प्रसरित की जाती हैं जबकि सोशल मीडिया के लेखक केवल राष्ट्र और समाज के हित में निष्पृह लिखते हैं और उसमे भी असहमति के लिए पूरी सम्भावना रहती है| बहस होती है और किसी निष्कर्ष तक पहुँचने की हर संभव कोशिश की जाती है|
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बुलाई गई राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए सोशल मीडिया को आड़े हाथों लिया। उनका कहना था कि सोशल मीडिया का जिस तरह प्रयोग होना चाहिए वैसे नहीं हो पा रहा है। प्रधानमंत्री का कहना था कि युवाओं के लिए सोशल नेटवर्किंग साइटें जानकारियां प्राप्त करने और उन्हें साझा करने का अच्छा माध्यम साबित हो सकती हैं लेकिन इसका प्रयोग इस दिशा में नहीं हो पा रहा है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उठी यह चर्चा कोई आज की बात नहीं है हर बार यही देखा जाता है कि जब भी कोई घटना घटित होती है तो उससे संबंधित चर्चाएं फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों पर आम होने लगती हैं। दिल्ली गैंग रेप केस हो या फिर मुजफ्फरनगर में हुए दंगे, हर बार यही देखा जाता है कि कई बार सोशल नेटवर्किंग साइटों पर डाली गई जानकारियां व्यवस्थित माहौल को बिगाड़ने लगती हैं और समाज में एक अजीब से तनाव को जन्म दे देती हैं। महिलाओं की सुरक्षा और सांप्रदायिक सद्भाव दो ऐसे मुद्दे हैं जिस पर सोशल नेटवर्किंग साइटों पर होने वाली पोस्ट सबसे ज्यादा प्रभाव डालती हैं। हमारा समाज बहुत संवेदनशील है और कोई भी नकारात्मक या भ्रामक जानकारी समाज के लिए खतरा पैदा कर सकती है। ऐसे हालातों के मद्देनजर सोशल नेटविंग साइटों पर नियंत्रण और महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ी उनकी भूमिका को लेकर एक बहस शुरू हो गई है।

वर्तमान में सोशल मीडिया जनता की आवाज़ है और ऐसी आवाज़ है जो सत्ता शासन तथा प्रशासन के कानो तक न केवल पहुँच रही है अपितु उन्हें कुछ करने के लिए प्रेरित और मजबूर करती है कदाचित यह आवाज़ उनकी निरंकुशता को आहत करती है इसलिए इसके विरुद्ध उनकी एकजुटता दिख रही है अन्यथा उनमे जितना दुराव हैं उतना न तो समाज में हैं और न राष्ट्रीय जीवन के किसी अंग में, तथापि सोशल मीडिया के कुछ राजनैतिक सोच से दबे हुए लेखकों को अपने अंदर सुधार अपेक्षित है इसे भी नहीं नकारा जा सकता| अनियंत्रित सोशल मीडिया शांति व्यवस्था के लिए किस प्रकार खतरा नहीं हो सकती है. सोशल मीडिया का उपयोग महिलाओं की सुरक्षा और उनकी अस्मिता के लिए खतरा नहीं है. नियंत्रित सोशल मीडिया लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांत के खिलाफ नहीं है. अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी की निजता का हनन सही नहीं है.



मदन मोहन सक्सेना